उपन्यास >> डान क्विग्जोट डान क्विग्जोटछविनाथ पाण्डेय
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स्पानी कथाकार मिग्यु द सरवांतीस साविद्र द्वारा लिखित कालजयी उपन्यास एल इनखेनिओसो इदाल्गो दोन किखोते दे ला मांचा का हिन्दी अनुवाद
Don Quixote - A hindi Book by - Chavinath Pandey डान क्विग्जोट - छविनाथ पाण्डेय
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
डान क्विग्जोट प्रख्यात स्पानी कथाकार मिग्यु द सरवांतीस साविद्र द्वारा लिखित कालजयी स्पानी उपन्यास एल इनखेनिओसो इदाल्गो दोन किखोते दे ला मांचा का हिन्दी अनुवाद है। यह कृति विश्व साहित्य के श्रेष्ठतम उपन्यासों में से एक मानी गयी है। हालाँकि सरवांतीस ने यह स्वीकार किया है कि उपन्यास का उद्देश्य शौर्यगाथात्मक पुस्तकों का उपहास था,जिसके कारण उन दिनों यह लोकप्रिय भी हुआ। लेकिन भरपूर कल्पनाशीलता और तत्कालीन सामाजिक साहित्यिक परिदृश्य का उपहास करने की अदम्य भावना के कारण उनका सामान्य व्यंगोद्देश्य पीछे छूट गया- उपन्यास शौर्य गाथा युग के अंतिम समय के स्पानी जीवन, सोच और अनुभवों का सूक्ष्म चित्रण उपलब्ध कराता है। विश्व के कथा साहित्य में शायद ही कोई ऐसा और पात्र हो, जिसने प्रस्तुत उपन्यास के करूण विदूषक नायक डान क्विग्जोट की भाँति पाठकों को साथ-साथ हँसा-रूलाकर उनके ह्रदय में घर कर लिया हो। आयरिश कवि डब्लू,बी.येट्स के अनुसार, कोई भी नाटककार न तो आज तक किसी ऐसे चरित्र की रचना कर सका है, न भविष्य में कर सकेगा, जो मंच से बाहर आकर हमारा उस तरह साथी बन जाए, जैसे डान क्विग्जोट इस पुस्तक के पन्नों से बाहर आकर हमारा साथी बना जाता है।" सन् 2005 ईस्वी में अपने स्पानी प्रकाशन की 400 वीं वर्षगांठ मना रहा .यह उपन्यास विश्व की प्रायः सभी प्रमुख भाषाओं में अनूदित होकर आज भी पाठकों के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है।
भूमिका
मुरझाये चेहरे और लालटेन-से जबड़े वाला डान क्विग्जोट एक लस्टम-पस्टम और सींकिया व्यक्ति था, जो अपना जंग-खाया कवच धारे अपने मरियल घोड़े रोजिनाण्टे पर चढ़ा डोलता था। हमारे जीवन में वह आज भी अपने पेटू अनुचर सैंकोपांका के साथ अपना भाला ताने घोड़े पर सवार दौड़ रहा है।
‘डान क्विग्जोट’ में हमें अपने जीवन की सातों अवस्थाओं के लिए सन्देश प्राप्त होता है : स्कूल के दिनों में श्रोवाटाइड के कुत्ते की भांति कम्बल में लोट-पोट होते सैंकों का दृश्य देखकर हँसी के मारे हमारे पेट में बल पड़ जाते हैं, कालेज के नए विद्यार्थी के रूप में हम प्रेमाहत कार्डेनिक और हरित-नयना लुसिण्डा के आख्यान की ओर आकर्षित होते हैं, और जब हम अपनी प्रेमिका, की भृकुटियों पर विषाद-भरे गीत रचने लगते हैं तो हमारा ध्यान चतुर डोरोथिया की ओर जाने लगता है। युद्धकाल में, जब हम रणभेरी के आह्वान पर गाँव-गाँव से जवानों को चल पड़ते देखते हैं तो क्या हमें उस छोकरे की याद नहीं आ जाती जो डान क्विग्जोट और सैंकों को रास्तें में जाता अकेला मिला था, जो कन्धे पर रखी तलवार के सहारे पोटली लटकाए गाता चल रहा था :
‘डान क्विग्जोट’ में हमें अपने जीवन की सातों अवस्थाओं के लिए सन्देश प्राप्त होता है : स्कूल के दिनों में श्रोवाटाइड के कुत्ते की भांति कम्बल में लोट-पोट होते सैंकों का दृश्य देखकर हँसी के मारे हमारे पेट में बल पड़ जाते हैं, कालेज के नए विद्यार्थी के रूप में हम प्रेमाहत कार्डेनिक और हरित-नयना लुसिण्डा के आख्यान की ओर आकर्षित होते हैं, और जब हम अपनी प्रेमिका, की भृकुटियों पर विषाद-भरे गीत रचने लगते हैं तो हमारा ध्यान चतुर डोरोथिया की ओर जाने लगता है। युद्धकाल में, जब हम रणभेरी के आह्वान पर गाँव-गाँव से जवानों को चल पड़ते देखते हैं तो क्या हमें उस छोकरे की याद नहीं आ जाती जो डान क्विग्जोट और सैंकों को रास्तें में जाता अकेला मिला था, जो कन्धे पर रखी तलवार के सहारे पोटली लटकाए गाता चल रहा था :
समरभूमि में जाता हूं मैं क्योंकि नहीं है पैसा
पैसा पास अगर होता तो क्या मैं करता ऐसा
पैसा पास अगर होता तो क्या मैं करता ऐसा
और भला कौन है जो अपने विश्वविद्यालय के जीवन में सालामान्का विश्वविद्यालय के उस विद्यार्थी सैम्सन कैरास्को की पग-पग पर याद न करता हो, जो डीलडौल में अनोखा न हो, पर जो बहुत बड़ा मसखरा था। और जब हम अधेड़ावस्था में पहुंचते हैं और अँधेरे वन में भटकने की दाँतें द्वारा निर्धारित आधी अवधि पार कर चुकते हैं, तो इस अमर रचना का द्वितीय खण्ड हमें उस सर्वव्यापी दृष्टि की झलक प्रदान करता है जो हमें शेक्सपियर और मौण्टेन में मिलती है।
हमें यह बराबर बताया जाता है कि यह पुस्तक प्राचीन प्रेमाख्यानों पर व्यंग्य हैं, और निस्सन्देह आंशिक रूप से यह बात सच है, क्योंकि सरवान्तीस ने ह्रासोन्मुखी अमर्यादित मध्ययुगीन वीर-विलासिताओं पर व्यंग्य जरूर किया गया है, पर वे गौल के अमादिस और चार्ल्स पंचम, सन्त इग्नातियस, सन्त टैरेसा आदि सोलहवीं शताब्दी के प्रखर व्यक्तियों के समान भाव से प्रशंसक भी थे। यह कहना उचित होगा कि सरवान्तीस ने अपना सारा जीवन वीर-विलास की भावना में बिताया था, और यदि डान क्विग्जोट सारे प्रेमाख्यानों को उखाड़ने में सफल हो सका तो इसका कारण यही है कि वह स्वयं भी एक प्रेमाख्यान है। यही नहीं, वह अन्य प्रेमाख्यानों से बढ़कर है, क्योंकि वह यथार्थ जगत् की भूमि पर टिका है।
‘डान क्विग्जोट’ के लेखन के रूप में विख्यात होने के बहुत पहले से ही सरवान्तीस महान् व्यक्तित्व के धनी और वीर थे। जीवन का चित्रण करने के पहले उन्होंने अपने जीवन के सबसे मूल्यवान वर्ष जीवन से शिक्षा लेने में बिताये थे। उन्होंने अपने जीवन में उन्हीं विषम परिस्थितियों के साथ प्रवेश किया था जो शेक्सपियर, डिकेन्स और बर्नार्ड शा के साथ लगी थीं, क्योंकि उनके माता-पिता निर्धन थे। अपने प्रारम्भिक जीवन की रकता से सरवान्तीस ने अपने परिजनों के प्रति उदारता और विनम्रता सीखी और परिवारिक सहयोग का मूल्य पहचानना सीखा। जो हो, निर्धनता का करुण प्रसंग उनकी समस्त रचनाओं में लगातार व्याप्त मिलता है।
सरवान्तीस को इस बात पर गर्व था कि उन्होंने सन् 1571 में लेपाण्टो के उस युद्ध में भाग लिया था जिसमें आस्ट्रिया के डान जान के भूमध्यसागर में तुर्की की शक्ति का समूल नाश कर दिया था। विजय की उस संध्या में वे बड़ी वीरता से लडे़ थे और घायल हो गए थे, उनका बायाँ हाथ चकनाचूर हो गया था और उनकी छाती में गोलियों से दो घाव हो गए थे।
दुर्भाग्य कदम-कदम पर पीछा करता रहा। जब वे पदोन्नति पाने के लिए स्पेन लौट रहे थे तो उनके बजरे पर अचानक आक्रमण हुआ और उन्हें बन्दी बनाकर एल्जियर्स ले जाया गया।
पाँच वर्ष के अपने बन्दी-जीवन में सरवान्तीस ने कारागार से भाग जाने का चार बार प्रयत्न किया और हर बार उनको और उनके साथियों को शत्रु-सैनिकों ने घेरकर पकड़ लिया। लेकिन पकड़े जाने पर हर बार उन्होंने पलायन का सारा अपराध अपने सिर ले लिया।
उनका शौर्य और त्याग इतना विलक्षण था कि जब सन् 1580 में उन्हें ट्रिनटरियन पादरियों ने उत्कोच देकर छुड़वा लिया तो उनके बंदी साथियों ने उनके वीरत्वपूर्ण आचरण और व्यवहार का गुड़गान करते हुए एक दास्तावेज पर हस्ताक्षर किये थे। यह दस्तावेज आज भी उपलब्ध है।
स्पेन लौटने पर लेपाण्टो के इस टोंटे नायक सरवान्तीस का जीवन अभावों और निराशाओं की कहानी बन गया। यद्यपि सन् 1584 में उन्होंने कैटेलीना नामक एक उन्नीस वर्षीय बाला से विवाह कर लिया था, पर वे अपनी पत्नी के लिए एक मामूली -सी गृहस्थी जोड़ने में भी असमर्थ रहे और विवश होकर शासन के लिए रसद जुटाने के काम पर अण्डालुसिया और ला मान्चा में घूमते रहे। सन् 1587 से लेकर अगले पन्द्रह वर्षों तक सैविले उनका अड्डा बना रहा जहाँ से वे गाँव-गाँव घूम-घूमकर रोटी गेहूं, जौ और तेल इकट्ठा करते। कभी-कभी उन्हें फसले हथियाने के कारण किसानों के उग्र प्रदर्शन का और मठाधीशों के बहिष्कार का सामना करना पड़ता था।
अपने निराले विनोदपूर्ण ढंग से सरवान्तीस ने हमें बताया है कि उनके नायक डान क्विग्जोट का जन्म बंदीग्रह में हुआ था जहाँ दुनिया भर की दीनता बसती है और सारी दर्द-भरी आवाज़ें घर कर लेती हैं।
यह सन् 1597 के उस प्रसंग का उल्लेख है जब सरवान्तीस ऋण के कारण सैविले जेल में बन्द थे और जब उन्हें ला मान्चा के इस विख्यात सज्जन का चरित लिखने की प्रेरणा हुई थी।
उपन्यास का पहला खण्ड सन् 1605 में प्रकट हुआ था, और छः महीने बीतते न-बीतते डान क्विग्जोट और उनके अनुचर सैकों दोनों की स्पेन एवं आसपास के देशों में धूम मच गई। यहाँ तक की समुद्र-पार इंडीज में भी दोनों प्रसिद्ध हो चुके थे और स्पेन में पाठकों के पत्र आने लगे थे कि पुस्तक का नाम बदलकर ‘डान क्विग्जोट और सैंकोपांका’ कर देना चाहिए; क्योंकि उनकी राय में सैकों का भी उतना ही महत्त्व है जितना उनके मालिक का, और सैकों में विनोद की मात्रा अपने मालिक से भी अधिक है।’
सच्चे अर्थों में विश्व के प्रथम उपन्यासों में अन्यतम इस उपन्यास की देश-विदेश में इतनी ख्याति और सफलता के बावजूद सरवान्तीस ने इसका दूसरा खण्ड पूरे दस वर्ष बाद लिखा तो झींककर यह भी जोड़ दिया : ‘बीमारी के अलावा धन के अभाव ने भी मेरी कमर तोड़ रखी है।’
इस समर्पण में सिर्फ दान-दक्षिणा की ही याचना नहीं थी, आश्वसन की भी माँग थी, क्योंकि जब वे अपने उपन्यास का दूसरा और अन्तिम खण्ड लिख रहे थे तभी उन्हें पता चल गया था कि टेरगोना के किसी एलोन्सो द एवेलानेडा ने एक नकली ‘डान क्विग्जोट’ प्रकाशित करके यह प्रचारित कर दिया है कि वह पूर्व-प्रकशित उपन्यास की ही अगली कड़ी है।
अगले ही वर्ष सन् 1616 में 23 अप्रैल शनिवार को उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के दस दिन बाद ही इंग्लैंड (जहाँ पंचांग में अभी सुधार नहीं हुआ था) शेक्सपियर का स्वर्गवास हुआ (एक प्रकार से) 23 अप्रैल को ही। मृत्यु में वे एक हो गए।
हमें यह बराबर बताया जाता है कि यह पुस्तक प्राचीन प्रेमाख्यानों पर व्यंग्य हैं, और निस्सन्देह आंशिक रूप से यह बात सच है, क्योंकि सरवान्तीस ने ह्रासोन्मुखी अमर्यादित मध्ययुगीन वीर-विलासिताओं पर व्यंग्य जरूर किया गया है, पर वे गौल के अमादिस और चार्ल्स पंचम, सन्त इग्नातियस, सन्त टैरेसा आदि सोलहवीं शताब्दी के प्रखर व्यक्तियों के समान भाव से प्रशंसक भी थे। यह कहना उचित होगा कि सरवान्तीस ने अपना सारा जीवन वीर-विलास की भावना में बिताया था, और यदि डान क्विग्जोट सारे प्रेमाख्यानों को उखाड़ने में सफल हो सका तो इसका कारण यही है कि वह स्वयं भी एक प्रेमाख्यान है। यही नहीं, वह अन्य प्रेमाख्यानों से बढ़कर है, क्योंकि वह यथार्थ जगत् की भूमि पर टिका है।
‘डान क्विग्जोट’ के लेखन के रूप में विख्यात होने के बहुत पहले से ही सरवान्तीस महान् व्यक्तित्व के धनी और वीर थे। जीवन का चित्रण करने के पहले उन्होंने अपने जीवन के सबसे मूल्यवान वर्ष जीवन से शिक्षा लेने में बिताये थे। उन्होंने अपने जीवन में उन्हीं विषम परिस्थितियों के साथ प्रवेश किया था जो शेक्सपियर, डिकेन्स और बर्नार्ड शा के साथ लगी थीं, क्योंकि उनके माता-पिता निर्धन थे। अपने प्रारम्भिक जीवन की रकता से सरवान्तीस ने अपने परिजनों के प्रति उदारता और विनम्रता सीखी और परिवारिक सहयोग का मूल्य पहचानना सीखा। जो हो, निर्धनता का करुण प्रसंग उनकी समस्त रचनाओं में लगातार व्याप्त मिलता है।
सरवान्तीस को इस बात पर गर्व था कि उन्होंने सन् 1571 में लेपाण्टो के उस युद्ध में भाग लिया था जिसमें आस्ट्रिया के डान जान के भूमध्यसागर में तुर्की की शक्ति का समूल नाश कर दिया था। विजय की उस संध्या में वे बड़ी वीरता से लडे़ थे और घायल हो गए थे, उनका बायाँ हाथ चकनाचूर हो गया था और उनकी छाती में गोलियों से दो घाव हो गए थे।
दुर्भाग्य कदम-कदम पर पीछा करता रहा। जब वे पदोन्नति पाने के लिए स्पेन लौट रहे थे तो उनके बजरे पर अचानक आक्रमण हुआ और उन्हें बन्दी बनाकर एल्जियर्स ले जाया गया।
पाँच वर्ष के अपने बन्दी-जीवन में सरवान्तीस ने कारागार से भाग जाने का चार बार प्रयत्न किया और हर बार उनको और उनके साथियों को शत्रु-सैनिकों ने घेरकर पकड़ लिया। लेकिन पकड़े जाने पर हर बार उन्होंने पलायन का सारा अपराध अपने सिर ले लिया।
उनका शौर्य और त्याग इतना विलक्षण था कि जब सन् 1580 में उन्हें ट्रिनटरियन पादरियों ने उत्कोच देकर छुड़वा लिया तो उनके बंदी साथियों ने उनके वीरत्वपूर्ण आचरण और व्यवहार का गुड़गान करते हुए एक दास्तावेज पर हस्ताक्षर किये थे। यह दस्तावेज आज भी उपलब्ध है।
स्पेन लौटने पर लेपाण्टो के इस टोंटे नायक सरवान्तीस का जीवन अभावों और निराशाओं की कहानी बन गया। यद्यपि सन् 1584 में उन्होंने कैटेलीना नामक एक उन्नीस वर्षीय बाला से विवाह कर लिया था, पर वे अपनी पत्नी के लिए एक मामूली -सी गृहस्थी जोड़ने में भी असमर्थ रहे और विवश होकर शासन के लिए रसद जुटाने के काम पर अण्डालुसिया और ला मान्चा में घूमते रहे। सन् 1587 से लेकर अगले पन्द्रह वर्षों तक सैविले उनका अड्डा बना रहा जहाँ से वे गाँव-गाँव घूम-घूमकर रोटी गेहूं, जौ और तेल इकट्ठा करते। कभी-कभी उन्हें फसले हथियाने के कारण किसानों के उग्र प्रदर्शन का और मठाधीशों के बहिष्कार का सामना करना पड़ता था।
अपने निराले विनोदपूर्ण ढंग से सरवान्तीस ने हमें बताया है कि उनके नायक डान क्विग्जोट का जन्म बंदीग्रह में हुआ था जहाँ दुनिया भर की दीनता बसती है और सारी दर्द-भरी आवाज़ें घर कर लेती हैं।
यह सन् 1597 के उस प्रसंग का उल्लेख है जब सरवान्तीस ऋण के कारण सैविले जेल में बन्द थे और जब उन्हें ला मान्चा के इस विख्यात सज्जन का चरित लिखने की प्रेरणा हुई थी।
उपन्यास का पहला खण्ड सन् 1605 में प्रकट हुआ था, और छः महीने बीतते न-बीतते डान क्विग्जोट और उनके अनुचर सैकों दोनों की स्पेन एवं आसपास के देशों में धूम मच गई। यहाँ तक की समुद्र-पार इंडीज में भी दोनों प्रसिद्ध हो चुके थे और स्पेन में पाठकों के पत्र आने लगे थे कि पुस्तक का नाम बदलकर ‘डान क्विग्जोट और सैंकोपांका’ कर देना चाहिए; क्योंकि उनकी राय में सैकों का भी उतना ही महत्त्व है जितना उनके मालिक का, और सैकों में विनोद की मात्रा अपने मालिक से भी अधिक है।’
सच्चे अर्थों में विश्व के प्रथम उपन्यासों में अन्यतम इस उपन्यास की देश-विदेश में इतनी ख्याति और सफलता के बावजूद सरवान्तीस ने इसका दूसरा खण्ड पूरे दस वर्ष बाद लिखा तो झींककर यह भी जोड़ दिया : ‘बीमारी के अलावा धन के अभाव ने भी मेरी कमर तोड़ रखी है।’
इस समर्पण में सिर्फ दान-दक्षिणा की ही याचना नहीं थी, आश्वसन की भी माँग थी, क्योंकि जब वे अपने उपन्यास का दूसरा और अन्तिम खण्ड लिख रहे थे तभी उन्हें पता चल गया था कि टेरगोना के किसी एलोन्सो द एवेलानेडा ने एक नकली ‘डान क्विग्जोट’ प्रकाशित करके यह प्रचारित कर दिया है कि वह पूर्व-प्रकशित उपन्यास की ही अगली कड़ी है।
अगले ही वर्ष सन् 1616 में 23 अप्रैल शनिवार को उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के दस दिन बाद ही इंग्लैंड (जहाँ पंचांग में अभी सुधार नहीं हुआ था) शेक्सपियर का स्वर्गवास हुआ (एक प्रकार से) 23 अप्रैल को ही। मृत्यु में वे एक हो गए।
पहला अध्याय
1. ख्यातनामा डान क्विग्जोट डे ला मांचा के रहन-सहन का स्तर और तरीका
लामांचा (स्पेन) के किसी गाँव में (जिसका नाम मैं नहीं प्रकट करूँगा) उस पुरानी चाल-ढाल के एक सज्जन रहते थे जो टेक और माला, पुरानी आड़, दुबला-पतला घोड़ा और शिकारी कुत्ते के बिना नहीं रहते थे। उनका भोजन भेड़ का गोश्त न होकर गो-मांस1 था। वह प्रायः प्रति रात को मांस के छोटे-छोटे टुकड़े, शुक्रवार को मसूर की दाल, शनिवार को अण्डा और सूअर का गोश्त तथा रविवार को असाधारण रूप से कबूतर खाते थे। भोजन में ही उनकी आय का तीन-चौथाई भाग खर्च हो जाता। शेष रकम वह अवकाश के दिनों के लिए रोयेंदार कोट, मखमली ब्रीचेज़ (चुस्त पाजमा), उसी की स्लीपर (चट्टी) और काम के दिनों को लिए घर के सूत के उत्तम वस्त्र पर खर्च करते थे। उनके परिवार में चालीस साल की उम्र की एक गृह-रक्षक महिला, बीस साल की एक भतीजी और एक नौकर था, जो घर का काम-काज करता और खेत भी सम्हालता था। वही साईस का काम भी करता था और बागवानी का भी। मालिक की उम्र पचास के लगभग थी, शरीर हृष्ट-पुष्ट, आकार पतला और चेहरा चिपटा। वह तड़के उठते थे और शिकार के शौकीन थे। कुछ लोग कहते हैं कि उनका नाम किग्जाडा या क्वेजाडा था। उनके उपनाम के बारे में लेखकों में मतभेद है। तो भी हम लोग यह मन लेते हैं कि उनका नाम क्विग्जाडा था (अर्थात् लालटेन की तरह जबड़े वाला)। यद्यपि इससे हम लोगों को विशेष प्रयोजन नहीं, शर्त यह है कि इस इतिहास के प्रत्येक भाग को ज्यों-का-त्यों मान लें।
इसलिए आप लोगों को वह जान लेना चाहिए कि जब इन महाशय को कोई काम नहीं रहता था (प्रायः साल-भर वे बेकार ही रहते थे) तब ये सामन्त वीरों की गाथा पढ़ने में अपना समय बिताते थे। वीरों की इन गाथाओं में उन्हें इतना आनन्द मिला और ऐसी रुचि उत्पन्न हुई कि उन्होंने शिकार करना एकदम छोड़ दिया।
1.स्पेन में खस के मांस से गो-मांस सस्ता मिलता था।
उन वीर गाथाओं में वे इस कदर लीन हो गए कि उस तरह की पुस्तकों के खऱीदार के लिए उन्होंने अपना कई एकड़ जोत की भूमि बेच दी। इस तरह उन्होंने उस समय उपलब्ध सभी पुस्तकों को खरीद डाला। उन संग्रहों में भी फेलसियानो डे सिल्वा की रचनाएँ उन्हें सबसे उत्कृष्ट प्रतीत हुईं, क्योंकि उसके गद्य की स्पष्ट शैली, तथा उसकी श्लिष्ट वाक्य-योजना, जो उसमें गद्य की विशेषता हैं, उन्हें वाग्मिता के चमकते मोती प्रतीत हुई, खासकर जब उन्होंने उसका ‘चैलेंजेज’ नामक ग्रंथ तथा प्रणयासक्त पत्रों को पढ़ा। उनमें से अधिकांश उसी असाधरण शैली में लिखे गए थे। ‘‘मेरे तर्कों के अनुपयुक्त प्रयोग के कारण मेरे तर्क इतने शिथिल हो जाते हैं कि मुझे तुम्हारे सौन्दर्य के प्रतिवाद के लिए पर्याप्त तर्क उपस्थित नहीं हो पाता।’’ और भी ‘‘गरिमामय नियति जो तुम्हारे भाग्य के नक्षत्र को सदा उद्दीप्त करती रहती है, और तुम्हें इस महान् शिखर पर चढ़ा देती है जो तुम्हारी महत्ता के सर्वथा अनुकूल है।’’ इस तरह के तथा अन्य वाक्य-विन्यास उस बेचारे के दिमाग को विचित्र उलझन में डाल देते थे जब वह उसका अभिप्राय समझने के लिए अपना दिमाग खपाता रहता था, जिसका वास्तविक अभिप्राय अरिस्टाटिल की समझ में भी ठीक-ठीक नहीं आ सकता था, भले ही खास उसी काम के लिए उसे कब्र से उठाना पड़े।
डान बोलियनिस ने जो भीषण घाव किये थे उनका वृत्तांत उसे रोचक नहीं प्रतीत हुआ, क्योंकि उनके विचार से शल्यविद्या की समूची कला उसके चेहरे और शरीर को घाव के दाग से विकृत करने से नहीं रोक सकती थी। उसे इस बात से बड़ा सन्तोष था कि लेखक ने इस साहसिक कार्य के असम्पूर्ण अध्याय को उठाए और उसके असम्पूर्ण अंश को पूर्ण कर दे। और यदि उसका मस्तिष्क किसी महत्त्वपूर्ण विचार में निमग्न न रहता तो निश्चित है कि इस काम को वह सम्पन्न कर देता। इस बात में जरा भी सन्देह की गुंजाइश नहीं कि उसे सफलता भी मिलती।
गाँव (पैरिस) के प्रधान पुरोहित से वह इस प्रश्न को लेकर बहुधा झगड़ पड़ता कि इंग्लैंड का पाल्मरिन बड़ा वीर योद्धा (नाइट) था या अमाडिस डे गाल। यद्यपि प्रधान पुरोहित विद्वान् व्यक्ति और सिगुएंजा विश्वविद्यालय का स्नातक था लेकिन उसी नगर का हज्जाम1 मास्टर निकोलिस कहता कि सूर्य के वीर
1.स्पेन के देहातो में हज्जाम ही शल्य-चिकित्सा (सर्जन) का काम करता था।
(नाइट ऑफ दी सन) के साथ उन दोनों में से किसी की तुलना नहीं हो सकती। यदि उनके नज़दीक कोई पहुँच सकता है तो वह अमाडिस डे गाल का भाई डान गैलओर है, क्योंकि उसका हृदय बहुत विशाल है। न तो अपने भाई की तरह वह अत्यधिक शौकीन है, और न उसके समान ईष्यालु प्रेमी है। और जहाँ तक साहस का सम्बन्ध है, वह उससे रंच-मात्र भी घटकर नहीं है।
सारांश यह कि वह उस तरह की पुस्तकों के पढ़ने में इतना दत्तचित्त हो जाता गया कि वह दिन को पढ़ना आरम्भ करता है तो पढ़ते-पढ़ते रात हो जाती है। दिन-रात पढ़ने में वह इस तरह व्यस्त रहता कि उसे सोने के लिए बहुत ही कम समय मिलता। फलस्वरूप उसके मस्तिष्क का रस इस प्रकार सूख गया कि अन्ततोगत्वा वह अपनी विचार-शक्ति का उपयोग करने योग्य नहीं रह गया। उन पुस्तकों में से उसने विचित्र-विचित्र विचारों को अपने मस्तिष्क में भर लिया था। वे ही विचार दिन-रात उसकी कल्पना में चक्कर लगाते रहते थे। उसके दिमाग में जादू-कलह, संग्राम-आह्वान (ललकार) घाव, शिकायत, प्रेम, यातना तथा अन्य प्रकार के संभव-असंभव विचार भर गए। इसका परिणाम यह हुआ कि जो भी किस्सा-कहानी और कल्पित वृत्तान्त वह पढ़ता, सब उसे सत्य ऐतिहसिक घटना प्रतीत होते। वह कहा करता कि सिड रूईडियज1 बहुत बड़ा वीर योद्धा था तो भी वह धधकती तलवार (बर्निग स्वोर्ड) वाले वीर योद्धा के मुकाबले में खड़ा होने योग्य नहीं था, क्योंकि इस वीर योद्धा ने तलवार के एक ही वार से दो भीषण और शक्तिशाली दैत्यों के दो टुकड़े कर डाले थे। लेकिन उससे भी अधिक प्रिय उसे बर्नाडोडेंल कर्वियों था, जिसने रान्सेस्वलस में मायावी आर्लैण्डो को मार डाला था। उसने उसे ज़मीन से उठा लिया और जिस तरह हरक्यूलीस ने धरती-पुत्र अण्टोइअस को गला घोंटकर मार डाला था उसी तरह ऊपर-ही-ऊपर उसने उसे गला घोंटकर मार डाला।
जहाँ तक मोर्गाण्टे दैत्य का सम्बन्ध था वह उसकी सदा प्रशंसा किया करता था। यद्यपि वह उन्हीं भयानक जन्तुओं में था जो घमंड में सदा चूर रहते थे और क्रूरता से बाज नहीं आते थे। तो भी उसका व्यवहार मृदु और सौम्य होता था।
लेकिन उसके हृदय में सबसे अधिक आदर माण्डलैबन के रिवेल्डो के लिए
1. स्पेन का प्रसिद्ध सेनापति, जिसके बारे में अनेक दन्तकथाएँ प्रचलित हैं।
था; खासकर उसका अपने किले से अचानक निकल पड़ना और जो मिले उसे लूट लेना और फिर विदेश1 जाकर मुहम्मद की प्रतिमा उठा लाना। इतिहास से विदित होता है कि वह प्रतिमा सोने की थी। लेकिन वह विश्वासघाती गैलेलन2 को दिल से नफ़रत करता था और उसे इत्मीनान के साथ ठोकर मारने का आनन्द प्राप्त करने के लिए यदि उसे अपने गृह-रक्षक अथवा भतीजी तक का त्याग करना पड़ता तो वह खुशी से राजी हो जाता।
इस तरह अपनी विचार-शक्ति खोने के बाद दुर्भाग्यवश उसके दिमाग में एक ऐसा पुराना खब्त घुसा जिसकी उपज पागल के दिमाग में ही हो सकती थी। उसने वीर योद्धा होना सुविधाजनक तथा प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए जितना आवश्यक समझा उतना ही सार्वजनिक सेवा के लिए अनिवार्य समझा। उसने देखा कि अपने घोड़े पर सवार होकर, आपादमस्तक शस्त्र से सुसज्जित होकर साहसिक काम के लिए संसार का चक्कर लगाना बहुत ही बड़ी सेवा होगी। उसने देखा कि जिन वीरों की कहानियाँ उसने पढ़ी हैं उनकी नकल करके, उनके जीवन का अनुकरण करके, लोगों के हर तरह के दुखों को दूर करते हुए, और प्रत्येक अवसर पर अपने को संकट में डालते हुए, अन्त में अपने साहसिक काम के सुखद अन्त के बाद उसे चिर प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि प्राप्त होगी। इस तरह के भ्रमात्मक विचारों से अभिभूत होकर उसने अपनी कल्पना में ट्रेपिजोण्डे के राजकीय दण्ड को हरण किया और अपनी बदलती आकांक्षा के पीछे दौड़ पड़ा। और मैदान में उत्तर पड़ने के लिए उसने क्षिप्रता के साथ सारी तैयारी कर डाली।
पहला काम उसने यह किया कि अपने प्रपितामह के समस्त शस्त्रों और कवच को रगड़कर साफ कर डाला। ये सामान वर्षों से घर के किसी कोने में लापरवाही से फेंके हुए पड़े थे और जंग का शिकार हो गए थे। उनसे उन्हें रगड़ कर जहाँ तक संभव हो सका साफ किया और मरम्मत करने के बाद उसने देखा कि उनमें का एक आवश्यक अंग गायब है; क्योंकि पूर्ण शिरस्त्राण के स्थान पर केवल सिर का हिस्सा मौजूद था। पर उसके उद्योग ने इस कमी की पूर्ति कर दी। उसने कागज़ की एक दफ़्ती ली और उससे शिरस्त्राण का वह हिस्सा बनाया जो चेहरे पर रहता है अर्थात उसने मुखौटा तैयार किया। लेकिन
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1.बारबरी।
2.संकेस्थाप्लिस के मैदान में फ्रांसीसी सेना के साथ विश्वासघात किया था।
दुर्भाग्यवश उसने पहले ही वार में उसे नष्ट कर डाला जिसे बनाने में उसे कम–से-कम सप्ताह-भर माथापच्ची करनी पड़ी थी। वह नहीं चाहता था कि वह इतनी आसानी से टूट जाए, इसलिए दूसरी बार उसे बनाकर इस तरह की दुर्घटना से उसे बचाने के लिए उस पर लोहे का पत्तर जड़ दिया। उसने इस कारीगरी के साथ लोहे के पत्तर को उसके पीछे ऐसा जड़ा कि अपने काम की मजबूती से उसे पूरा संतोष हो गया। इसलिए उससे अधिक जांच की आवश्यकता महसूस न करके उसने इस बात को मान लिया कि पूर्ण शिरस्त्राण से जो काम संपन्न हो सकता है, इससे भी वही काम पूरी तरह निकल जाएगा।
इसके बाद वह अपने घोड़े की जाँच करने गया, जिसकी हड्डियाँ स्पेन के रीयल सिक्के की तरह बाहर निकल आयी थीं। उससे सड़ा-गला दूसरा घोड़ा नहीं हो सकता था; तो भी उसके मालिक ने समझा कि न तो सिकन्दर का ब्यूसी-फेलस और न सिडका वेनि का इसका मुकाबला कर सकते हैं।
वह चार दिन तक इसी उधेड़बुन में पड़ा रहा कि वह अपने घोड़े का क्या नाम रखे। वह अपने मन में तर्क करने लगा कि जो घोड़ा ऐसे प्रसिद्ध वीर योद्धा की सवारी में रहेगा और जो स्वयं उत्तम गुणों से संपन्न है, उसका नाम भी वैसा ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो। इसलिए वह इस विचार में पड़ गया कि उसे ऐसा नाम दिया जाए जिससे प्रकट हो कि उसके मालिक के वीर योद्धा बनने से पहले वह किस तरह का घोड़ा था और अब कैसा है। उसने इसे उपयुक्त ही समझा कि जब उसके मालिक ने अपना पेशा बदल दिया है तो उसके घोड़े का नाम भी बदल जाना चाहिए और उसे दूसरे नाम से विभूषित होना चाहिए और वह नाम भी इतना बड़ा हो कि उसके उच्चारण से मुँह भर जाए और उसके मालिक के पेशे और योग्यता के अनुकूल हो। इस तरह कई नामों को सोचने, रद्द करने, बदलने, पसन्द तथा नापसन्द करने और फिर उन पर विचार करने के बाद अन्त में उसने उसका नाम रोजिनाण्टे1 रखा। उसकी समझ में यह नाम विशाल था, उसका उच्चारण सुर्दीर्घ था और उसकी पूर्वस्थिति तथा वर्तमान अवस्था का पूर्ण द्योतक था। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि पहले वह साधारण घोड़ा था, लेकिन अब संसार के सभी निकृष्टतम घोड़ों से ऊपर हो गया था।
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1. ‘रोज़िन’ का अर्थ है साधारण घोड़ा। ‘अण्टे का अर्थ है पहले। इस तरह ‘रोजिनाण्टे’ शब्द प्रकट करता है कि पहले वह साधारण घोड़ा था, लेकिन अब वह सभी साधारण घोड़ों से बढ़कर है।
घोड़े के नामकरण से उसे पूरा संतोष हो गया। तब वह अपने लिए नाम चुनने की चिन्ता में पड़ गया। वह आठ दिन तक निरन्तर सोचता-विचारता रहा और अन्त में उसने अपने लिए ‘डान क्विग्जोट’ नाम चुना। उसी से इस प्रामाणित इतिहास के लेखक ने यह परिणाम निकाला कि उसका असली नाम क्विग्जाडा था, न कि क्वेसाड़ा; जैसा कि ये लोग भूल से कहते हैं। उसने यह भी देखा कि वीर योद्धा अमाडिस को केवल अमाडिस नाम से संतोष नहीं हुआ, उसने अपने नाम में अपने देश का भी नाम जोड़ दिया ताकि वह अपने साहसिक कामों से अधिक प्रसिद्धि प्राप्त कर सके, इलके लिए उसने अपना नाम अमाडिस डेगाल रखा। उसी के अनुकरण पर अपनी जन्मभूमि का सच्चा प्रेमी होने के कारण उसने भी अपना नाम डान क्विग्जोट डेला मांचा रखा। उसने समझा कि अपने नाम में इतना जोड़ देने से उसके देश और वंश का परिचय भी मिल जाता है और इस तरह विश्व के उस भाग को स्थायी ख्याति भी प्राप्त हो जायगी।
लामांचा (स्पेन) के किसी गाँव में (जिसका नाम मैं नहीं प्रकट करूँगा) उस पुरानी चाल-ढाल के एक सज्जन रहते थे जो टेक और माला, पुरानी आड़, दुबला-पतला घोड़ा और शिकारी कुत्ते के बिना नहीं रहते थे। उनका भोजन भेड़ का गोश्त न होकर गो-मांस1 था। वह प्रायः प्रति रात को मांस के छोटे-छोटे टुकड़े, शुक्रवार को मसूर की दाल, शनिवार को अण्डा और सूअर का गोश्त तथा रविवार को असाधारण रूप से कबूतर खाते थे। भोजन में ही उनकी आय का तीन-चौथाई भाग खर्च हो जाता। शेष रकम वह अवकाश के दिनों के लिए रोयेंदार कोट, मखमली ब्रीचेज़ (चुस्त पाजमा), उसी की स्लीपर (चट्टी) और काम के दिनों को लिए घर के सूत के उत्तम वस्त्र पर खर्च करते थे। उनके परिवार में चालीस साल की उम्र की एक गृह-रक्षक महिला, बीस साल की एक भतीजी और एक नौकर था, जो घर का काम-काज करता और खेत भी सम्हालता था। वही साईस का काम भी करता था और बागवानी का भी। मालिक की उम्र पचास के लगभग थी, शरीर हृष्ट-पुष्ट, आकार पतला और चेहरा चिपटा। वह तड़के उठते थे और शिकार के शौकीन थे। कुछ लोग कहते हैं कि उनका नाम किग्जाडा या क्वेजाडा था। उनके उपनाम के बारे में लेखकों में मतभेद है। तो भी हम लोग यह मन लेते हैं कि उनका नाम क्विग्जाडा था (अर्थात् लालटेन की तरह जबड़े वाला)। यद्यपि इससे हम लोगों को विशेष प्रयोजन नहीं, शर्त यह है कि इस इतिहास के प्रत्येक भाग को ज्यों-का-त्यों मान लें।
इसलिए आप लोगों को वह जान लेना चाहिए कि जब इन महाशय को कोई काम नहीं रहता था (प्रायः साल-भर वे बेकार ही रहते थे) तब ये सामन्त वीरों की गाथा पढ़ने में अपना समय बिताते थे। वीरों की इन गाथाओं में उन्हें इतना आनन्द मिला और ऐसी रुचि उत्पन्न हुई कि उन्होंने शिकार करना एकदम छोड़ दिया।
1.स्पेन में खस के मांस से गो-मांस सस्ता मिलता था।
उन वीर गाथाओं में वे इस कदर लीन हो गए कि उस तरह की पुस्तकों के खऱीदार के लिए उन्होंने अपना कई एकड़ जोत की भूमि बेच दी। इस तरह उन्होंने उस समय उपलब्ध सभी पुस्तकों को खरीद डाला। उन संग्रहों में भी फेलसियानो डे सिल्वा की रचनाएँ उन्हें सबसे उत्कृष्ट प्रतीत हुईं, क्योंकि उसके गद्य की स्पष्ट शैली, तथा उसकी श्लिष्ट वाक्य-योजना, जो उसमें गद्य की विशेषता हैं, उन्हें वाग्मिता के चमकते मोती प्रतीत हुई, खासकर जब उन्होंने उसका ‘चैलेंजेज’ नामक ग्रंथ तथा प्रणयासक्त पत्रों को पढ़ा। उनमें से अधिकांश उसी असाधरण शैली में लिखे गए थे। ‘‘मेरे तर्कों के अनुपयुक्त प्रयोग के कारण मेरे तर्क इतने शिथिल हो जाते हैं कि मुझे तुम्हारे सौन्दर्य के प्रतिवाद के लिए पर्याप्त तर्क उपस्थित नहीं हो पाता।’’ और भी ‘‘गरिमामय नियति जो तुम्हारे भाग्य के नक्षत्र को सदा उद्दीप्त करती रहती है, और तुम्हें इस महान् शिखर पर चढ़ा देती है जो तुम्हारी महत्ता के सर्वथा अनुकूल है।’’ इस तरह के तथा अन्य वाक्य-विन्यास उस बेचारे के दिमाग को विचित्र उलझन में डाल देते थे जब वह उसका अभिप्राय समझने के लिए अपना दिमाग खपाता रहता था, जिसका वास्तविक अभिप्राय अरिस्टाटिल की समझ में भी ठीक-ठीक नहीं आ सकता था, भले ही खास उसी काम के लिए उसे कब्र से उठाना पड़े।
डान बोलियनिस ने जो भीषण घाव किये थे उनका वृत्तांत उसे रोचक नहीं प्रतीत हुआ, क्योंकि उनके विचार से शल्यविद्या की समूची कला उसके चेहरे और शरीर को घाव के दाग से विकृत करने से नहीं रोक सकती थी। उसे इस बात से बड़ा सन्तोष था कि लेखक ने इस साहसिक कार्य के असम्पूर्ण अध्याय को उठाए और उसके असम्पूर्ण अंश को पूर्ण कर दे। और यदि उसका मस्तिष्क किसी महत्त्वपूर्ण विचार में निमग्न न रहता तो निश्चित है कि इस काम को वह सम्पन्न कर देता। इस बात में जरा भी सन्देह की गुंजाइश नहीं कि उसे सफलता भी मिलती।
गाँव (पैरिस) के प्रधान पुरोहित से वह इस प्रश्न को लेकर बहुधा झगड़ पड़ता कि इंग्लैंड का पाल्मरिन बड़ा वीर योद्धा (नाइट) था या अमाडिस डे गाल। यद्यपि प्रधान पुरोहित विद्वान् व्यक्ति और सिगुएंजा विश्वविद्यालय का स्नातक था लेकिन उसी नगर का हज्जाम1 मास्टर निकोलिस कहता कि सूर्य के वीर
1.स्पेन के देहातो में हज्जाम ही शल्य-चिकित्सा (सर्जन) का काम करता था।
(नाइट ऑफ दी सन) के साथ उन दोनों में से किसी की तुलना नहीं हो सकती। यदि उनके नज़दीक कोई पहुँच सकता है तो वह अमाडिस डे गाल का भाई डान गैलओर है, क्योंकि उसका हृदय बहुत विशाल है। न तो अपने भाई की तरह वह अत्यधिक शौकीन है, और न उसके समान ईष्यालु प्रेमी है। और जहाँ तक साहस का सम्बन्ध है, वह उससे रंच-मात्र भी घटकर नहीं है।
सारांश यह कि वह उस तरह की पुस्तकों के पढ़ने में इतना दत्तचित्त हो जाता गया कि वह दिन को पढ़ना आरम्भ करता है तो पढ़ते-पढ़ते रात हो जाती है। दिन-रात पढ़ने में वह इस तरह व्यस्त रहता कि उसे सोने के लिए बहुत ही कम समय मिलता। फलस्वरूप उसके मस्तिष्क का रस इस प्रकार सूख गया कि अन्ततोगत्वा वह अपनी विचार-शक्ति का उपयोग करने योग्य नहीं रह गया। उन पुस्तकों में से उसने विचित्र-विचित्र विचारों को अपने मस्तिष्क में भर लिया था। वे ही विचार दिन-रात उसकी कल्पना में चक्कर लगाते रहते थे। उसके दिमाग में जादू-कलह, संग्राम-आह्वान (ललकार) घाव, शिकायत, प्रेम, यातना तथा अन्य प्रकार के संभव-असंभव विचार भर गए। इसका परिणाम यह हुआ कि जो भी किस्सा-कहानी और कल्पित वृत्तान्त वह पढ़ता, सब उसे सत्य ऐतिहसिक घटना प्रतीत होते। वह कहा करता कि सिड रूईडियज1 बहुत बड़ा वीर योद्धा था तो भी वह धधकती तलवार (बर्निग स्वोर्ड) वाले वीर योद्धा के मुकाबले में खड़ा होने योग्य नहीं था, क्योंकि इस वीर योद्धा ने तलवार के एक ही वार से दो भीषण और शक्तिशाली दैत्यों के दो टुकड़े कर डाले थे। लेकिन उससे भी अधिक प्रिय उसे बर्नाडोडेंल कर्वियों था, जिसने रान्सेस्वलस में मायावी आर्लैण्डो को मार डाला था। उसने उसे ज़मीन से उठा लिया और जिस तरह हरक्यूलीस ने धरती-पुत्र अण्टोइअस को गला घोंटकर मार डाला था उसी तरह ऊपर-ही-ऊपर उसने उसे गला घोंटकर मार डाला।
जहाँ तक मोर्गाण्टे दैत्य का सम्बन्ध था वह उसकी सदा प्रशंसा किया करता था। यद्यपि वह उन्हीं भयानक जन्तुओं में था जो घमंड में सदा चूर रहते थे और क्रूरता से बाज नहीं आते थे। तो भी उसका व्यवहार मृदु और सौम्य होता था।
लेकिन उसके हृदय में सबसे अधिक आदर माण्डलैबन के रिवेल्डो के लिए
1. स्पेन का प्रसिद्ध सेनापति, जिसके बारे में अनेक दन्तकथाएँ प्रचलित हैं।
था; खासकर उसका अपने किले से अचानक निकल पड़ना और जो मिले उसे लूट लेना और फिर विदेश1 जाकर मुहम्मद की प्रतिमा उठा लाना। इतिहास से विदित होता है कि वह प्रतिमा सोने की थी। लेकिन वह विश्वासघाती गैलेलन2 को दिल से नफ़रत करता था और उसे इत्मीनान के साथ ठोकर मारने का आनन्द प्राप्त करने के लिए यदि उसे अपने गृह-रक्षक अथवा भतीजी तक का त्याग करना पड़ता तो वह खुशी से राजी हो जाता।
इस तरह अपनी विचार-शक्ति खोने के बाद दुर्भाग्यवश उसके दिमाग में एक ऐसा पुराना खब्त घुसा जिसकी उपज पागल के दिमाग में ही हो सकती थी। उसने वीर योद्धा होना सुविधाजनक तथा प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए जितना आवश्यक समझा उतना ही सार्वजनिक सेवा के लिए अनिवार्य समझा। उसने देखा कि अपने घोड़े पर सवार होकर, आपादमस्तक शस्त्र से सुसज्जित होकर साहसिक काम के लिए संसार का चक्कर लगाना बहुत ही बड़ी सेवा होगी। उसने देखा कि जिन वीरों की कहानियाँ उसने पढ़ी हैं उनकी नकल करके, उनके जीवन का अनुकरण करके, लोगों के हर तरह के दुखों को दूर करते हुए, और प्रत्येक अवसर पर अपने को संकट में डालते हुए, अन्त में अपने साहसिक काम के सुखद अन्त के बाद उसे चिर प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि प्राप्त होगी। इस तरह के भ्रमात्मक विचारों से अभिभूत होकर उसने अपनी कल्पना में ट्रेपिजोण्डे के राजकीय दण्ड को हरण किया और अपनी बदलती आकांक्षा के पीछे दौड़ पड़ा। और मैदान में उत्तर पड़ने के लिए उसने क्षिप्रता के साथ सारी तैयारी कर डाली।
पहला काम उसने यह किया कि अपने प्रपितामह के समस्त शस्त्रों और कवच को रगड़कर साफ कर डाला। ये सामान वर्षों से घर के किसी कोने में लापरवाही से फेंके हुए पड़े थे और जंग का शिकार हो गए थे। उनसे उन्हें रगड़ कर जहाँ तक संभव हो सका साफ किया और मरम्मत करने के बाद उसने देखा कि उनमें का एक आवश्यक अंग गायब है; क्योंकि पूर्ण शिरस्त्राण के स्थान पर केवल सिर का हिस्सा मौजूद था। पर उसके उद्योग ने इस कमी की पूर्ति कर दी। उसने कागज़ की एक दफ़्ती ली और उससे शिरस्त्राण का वह हिस्सा बनाया जो चेहरे पर रहता है अर्थात उसने मुखौटा तैयार किया। लेकिन
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1.बारबरी।
2.संकेस्थाप्लिस के मैदान में फ्रांसीसी सेना के साथ विश्वासघात किया था।
दुर्भाग्यवश उसने पहले ही वार में उसे नष्ट कर डाला जिसे बनाने में उसे कम–से-कम सप्ताह-भर माथापच्ची करनी पड़ी थी। वह नहीं चाहता था कि वह इतनी आसानी से टूट जाए, इसलिए दूसरी बार उसे बनाकर इस तरह की दुर्घटना से उसे बचाने के लिए उस पर लोहे का पत्तर जड़ दिया। उसने इस कारीगरी के साथ लोहे के पत्तर को उसके पीछे ऐसा जड़ा कि अपने काम की मजबूती से उसे पूरा संतोष हो गया। इसलिए उससे अधिक जांच की आवश्यकता महसूस न करके उसने इस बात को मान लिया कि पूर्ण शिरस्त्राण से जो काम संपन्न हो सकता है, इससे भी वही काम पूरी तरह निकल जाएगा।
इसके बाद वह अपने घोड़े की जाँच करने गया, जिसकी हड्डियाँ स्पेन के रीयल सिक्के की तरह बाहर निकल आयी थीं। उससे सड़ा-गला दूसरा घोड़ा नहीं हो सकता था; तो भी उसके मालिक ने समझा कि न तो सिकन्दर का ब्यूसी-फेलस और न सिडका वेनि का इसका मुकाबला कर सकते हैं।
वह चार दिन तक इसी उधेड़बुन में पड़ा रहा कि वह अपने घोड़े का क्या नाम रखे। वह अपने मन में तर्क करने लगा कि जो घोड़ा ऐसे प्रसिद्ध वीर योद्धा की सवारी में रहेगा और जो स्वयं उत्तम गुणों से संपन्न है, उसका नाम भी वैसा ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो। इसलिए वह इस विचार में पड़ गया कि उसे ऐसा नाम दिया जाए जिससे प्रकट हो कि उसके मालिक के वीर योद्धा बनने से पहले वह किस तरह का घोड़ा था और अब कैसा है। उसने इसे उपयुक्त ही समझा कि जब उसके मालिक ने अपना पेशा बदल दिया है तो उसके घोड़े का नाम भी बदल जाना चाहिए और उसे दूसरे नाम से विभूषित होना चाहिए और वह नाम भी इतना बड़ा हो कि उसके उच्चारण से मुँह भर जाए और उसके मालिक के पेशे और योग्यता के अनुकूल हो। इस तरह कई नामों को सोचने, रद्द करने, बदलने, पसन्द तथा नापसन्द करने और फिर उन पर विचार करने के बाद अन्त में उसने उसका नाम रोजिनाण्टे1 रखा। उसकी समझ में यह नाम विशाल था, उसका उच्चारण सुर्दीर्घ था और उसकी पूर्वस्थिति तथा वर्तमान अवस्था का पूर्ण द्योतक था। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि पहले वह साधारण घोड़ा था, लेकिन अब संसार के सभी निकृष्टतम घोड़ों से ऊपर हो गया था।
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1. ‘रोज़िन’ का अर्थ है साधारण घोड़ा। ‘अण्टे का अर्थ है पहले। इस तरह ‘रोजिनाण्टे’ शब्द प्रकट करता है कि पहले वह साधारण घोड़ा था, लेकिन अब वह सभी साधारण घोड़ों से बढ़कर है।
घोड़े के नामकरण से उसे पूरा संतोष हो गया। तब वह अपने लिए नाम चुनने की चिन्ता में पड़ गया। वह आठ दिन तक निरन्तर सोचता-विचारता रहा और अन्त में उसने अपने लिए ‘डान क्विग्जोट’ नाम चुना। उसी से इस प्रामाणित इतिहास के लेखक ने यह परिणाम निकाला कि उसका असली नाम क्विग्जाडा था, न कि क्वेसाड़ा; जैसा कि ये लोग भूल से कहते हैं। उसने यह भी देखा कि वीर योद्धा अमाडिस को केवल अमाडिस नाम से संतोष नहीं हुआ, उसने अपने नाम में अपने देश का भी नाम जोड़ दिया ताकि वह अपने साहसिक कामों से अधिक प्रसिद्धि प्राप्त कर सके, इलके लिए उसने अपना नाम अमाडिस डेगाल रखा। उसी के अनुकरण पर अपनी जन्मभूमि का सच्चा प्रेमी होने के कारण उसने भी अपना नाम डान क्विग्जोट डेला मांचा रखा। उसने समझा कि अपने नाम में इतना जोड़ देने से उसके देश और वंश का परिचय भी मिल जाता है और इस तरह विश्व के उस भाग को स्थायी ख्याति भी प्राप्त हो जायगी।
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